Wake Up Smit

This is my Blog, I'll write what I think, what I like to share with everyone. I do not claim to be the originator of all collections here. I get these through, email, books, movies amongst other sources; makin it difficult to always give credit to the Author. It is just my attempt to liven up LIFE which is in any case too serious. There is no discrimination - racial or otherwise involved. If you see something you do not like, please feel free to move on!

Sunday, October 23, 2016

दोस्ती : जीवन भर का लगाव या पल भर की पहेचान

"मित्र एसा कीजिये, जैसे सर को बाल,
काट काट के काटिए, फिर भी तजे न खाल"



मानवी एक सामाजिक जीव है. और उससे भी ज्यादा वो एक भावुक जीव है. दुनिया के हर एक व्यक्ति, चाहे वो अमीर हो, गरीब हो, गोरा हो, काला हो, लड़का हो, लड़की हो, कोई भी हो लेकिन वह हर एक मानवीय संवेदना को महसूस करता है. और उसे जीने की कोशिश करता है.


जीवन में कई क्षण ऐसे आते है जो हम लोग या तो खुद महसूस करते है या किसी करीबी के जीवन में महसूस करते है. ख़ुशी के क्षण, गम के क्षण, हर्षाश्रु के क्षण. बेटी की बिदाई, बेटे का अव्वल आना, भाई की नोकरी लग्न, बहन के घर नए महेमान का आगमन, परिवार में मृत्यु, ये सब जीवन के बहुत अहम् क्षण होते है जो हम सब ने जिए है या फिर करीबी को इन क्षणों में देखा है.


लेकिन इन सब क्षण में जब हम जीते है तब हमें कोई चाहिए जो आपके साथ खड़ा रहे. जो आपको किसी भी हालत में आपके साथ कंधे से कन्धा मिलके खड़ा रहे. और इसे ही शायद दोस्ती कहते है. कृष्णा सुदामा से ले कर जय और वीरू  की दोस्ती के किस्से हम पढ़ के बड़े हुए है .

आज के युग में फेसबुक पे हज़ार मित्र हो शकते है. व्हाट्स एप पे गुड मोर्निंग के सन्देश भेजने वाले आपके सेंकडो दोस्त हो शकते है. लेकिन इन सब को दोस्त मानना उचित नहीं कहा जा शकता. इन सब के लिए अंग्रेजी में एक बहुत खुबसूरत शब्द है " known strangers" अर्थात आप जिन्हें जानते तो है पर फिर भी वो अजनबी है.


ये known strangers और दोस्त के बिच का तफावत धुन्धने में कई बार पूरी जिंदगी ख़तम हो जाती है. और जब हम लोग किसी व्यक्ति को दोस्त समजने लगते है तो हमारी आशा बढ़ जाती है. और हम चाहते है की उसे भी  वही चीज़ पसंद हो जो हम कहे. या फिर हम उनसे वह काम की आशा रखते है जो हम उनसे करवाना चाहते है.

आप जब भी कोई संस्था के साथ जुड़ते है फिर वो आपका स्कूल हो या ओफ्फिस या फिर कोई और संस्था. आप वहा के लोगो के साथ संपर्क में आते है और उनसे बात करते ही एक सामान विचारधारा किसी एक या एक से अधिक मुद्दे पर बनती है. और जिसे हमारा दिमाग उन्हें अपना दोस्त मानने लगता है. और धीरे धीरे समय के साथ ये दोस्ती गहरी होती जाती है.

लेकिन यह जरुरी नहीं की आप हमेशा उसी संस्था में रहे या वो उसी संस्था में रहे. जब साथ रहेने का समय कम हो जाता है तो व्यवस्था के नाम पर वो मित्रता एक औपचारिकता में परिवर्तित हो जाती है. तब सामने वाले की अपेक्षा पर खरा नहीं उतरने पर दूसरा व्यक्ति दुखी हो जाता है और सम्बन्ध में एक तनाव आ जाता है.

दोस्ती में कोई मोल भाव नहीं होता पर आज के युग में सच्चा दोस्त ढूँढना बहुत ही मुश्किल काम है पर उससे मुश्किल काम है सच्चा दोस्त बनाना. और जब आप का कोई दोस्त आप पे अपना विश्वास खो दे तो ये समजना जरुरी है की चुक न तो आपकी है न तो आपके दोस्त की. चुक है विचारो की एवं ग़लतफ़हमी को दूर करने की.

जीवन में कम से कम एक दोस्त एसा जरुर रखे जो आपको " तू पागल है क्या" बोल शके और आप हां कहे के उसका जवाब दे शके.